अत्यंत पुण्य का प्रभाव होता है तब अपने यहां गुरु भगवंत, या साध्वीजी हमारे संघ में विहार करके चौमासा करने पधारते है एवं अपने व्यस्त साधना के समय में से समय निकाल कर हमें जिनवाणी सुनाते हैं।
पर कहीं न कहीं हम श्रावकों की कमी दिखती है जब १-१ घंटे के व्याख्यान में भी हमारी उपस्थिति नही होती है।
क्या वाकई हम इतने व्यस्त है ?
क्या वाकई हमारे व्यापार सुबह ०८ – ४५ बजे शुरू हो जाते है ? क्या हम १०: ०० बजे बाद व्यापार करने जाएं तो बहुत नुकसान होता है।
क्या रात में या रविवार को भी बच्चों के स्कूल चालू होते है?
क्या संतसेवा-संघसेवा-साधर्मी सेवा में हमारा कोई कर्तव्य नही?
क्या आत्म उत्थान की और हमें अग्रसर नही होना है?
सिर्फ, एक बार कुछ मिनट निकालें , सोचे-समझे और विचारकर अपने स्वंय से पूछे कि वर्तमान में जो धर्म की हानि हो रही है उस में मैं (स्वंय) कितना जिम्मेदार हूँ !!!!!?
इतने व्यस्त या अस्त व्यस्त न बने की आने वाला समय हमें पछताने जितना समय भी नही देवें ।
आओ,
आज से, अभी से ही
जितनी अनुकूलता हो
अपने अपने संघ में विराजित संयमी आत्माओं के वैयावच्च में जुड़ जाएं, कुछ धर्म आराधना हम सपरिवार करें, सपरिवार जिनवाणी श्रवण हम करें और औरों के लिए कल्याण मित्र बनें…
आओ, मिलकर धर्म की दलाली करें,
आओ, मिलकर जिन शासन
प्रभावना करें… ?
चातुर्मास मध्ये बहुसंख्य जैन श्रावक उदासीन का?






















